।। ब्रह्म वेदी ।।

ज्ञान सागर अति उजागर, निर्विकार निरंजनं। ब्रहा ज्ञानी महाध्यानी, सत् सुकृत दुःख भंजनम्।।1।।

मूल चक्र गणेश बासा, रक्त वर्ण जहां जानिये। किलियं जाप कुली तज सब, शब्द हमारा मानिये।। 2 ।।

स्वाद चक्र ब्रहादि बासा, जहां सावित्री ब्रहा रहैं। उ जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग सतगुरु कहैं।। 3 ।।

नाभि कमल में विष्णु विशंभर, जहां ल़क्ष्मी संग बास हैं। हरियं जाप जपंत हंसा, जानत बिरला दास हैं।। 4 ।।

हृदय कमल महादेव देवं, सती पार्वती संग हैं। सोहं जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग भल रंग हैं।। 5 ।।

कण्ठ कमल में बसे अविद्या, ज्ञान ध्यान बुद्धि नासही। लील चक्र मध्य काल कर्मम, आवत दम कूं फांसही।। 6।।

त्रिकुटी कमल परम हंस पूर्ण, सतगुरु समरथ आप हैं। मन पौना सम सिंध मेलो, सुरति निरति का जाप हैं।। 7।।

सहंस कमल दल आप साहिब, ज्यूं फूलन मध्य गंध हैं। पूर रहाा जगदीश जोगी, सत् समरथ निर्बन्ध हैं।। 8।।

मीनी खोज हनोज हरदम, उलट पंथ की बाट हैं। इला पिंगला सुषमन खोजो, चल हंसा औघट घाट है।। 9।।

ऐसा जोग विजोग वरणों, जो शंकर ने चित धरया। कुम्भक रेचक द्वादस पल्टे, काल कर्म तिस तें डरया।। 10।।

सुन्न सिंधासन अमर आसन, अलख पुरुष निर्बान हैं। अति ल्योलीन बेदीन मालिक, कादर कूं कुर्बान है।। 11।।

है निरसिंध अबंध अविगत, कोटि बैकुण्ठ नख रुप हैं। अपरम पार दीदार दमेर्शन, ऐसा अजब अनूप हैं।। 12।।

घुरैं निसान अखण्ड धुनि सुनि, सोहं वेदी गाईये। बाजैं नाद अगाध अग है, जहां ले मन ठहराईये।। 13।।

सुरति निरति मन पवन पलटे , बंक नाल सम कीजिये। सरबै फूल असूल अस्थिर, अमी महारस पीजिये।। 14।।

सप्त पुरी मेरुदण्ड खोजो, मन मनसा गह राखिये। उड है भंवर आकाश गमनं, पांच पच्चीसौं नाखिये।। 15।।

गगन मंडल की सैल कर ले, बहुरि न ऐसा दाव हैं। चल हंसा परलोक पठाउं, भौ- सागर नहीं आव हैं।। 16।।

कन्द्रप जीत उदीत जोगी, षट कर्मी योह खेल हैं। अनभै मालिन हार गूंदे, सुरति निरति का मेल है।। 17।।

सोहं जाप अजाप थरपो, त्रिकुटी संयम धुनि लगै। मान सरोवर न्हान हंसा, गंग सहंस मुख जित बगै।। 18।।

कालंद्री कुरबार कादर, अविगत मूरत खूब है। छत्र श्वेत विशाल लोचन, गलताना महबूब हैं।। 19।।

दिल अंदर दीदार दर्शन, बाहर अन्त न जाईये। काया माया कहा बपरी, तन मन शीश चढाईये।। 20।।

अविगत आदि जुगादि जोगी, सत् पुरुष ल्यौलीन हैं। गगन मंडल गलतान गैबी, जात अजात बे-दीन है।। 21।।

सुख सागर रतनागर निर्भय, बिन मुख बानी गाावहीं। बिन आकार अजोख निर्मल, दृष्टि मुष्टि नहीं आवहंीं।। 22।।

झिल-मिल नूर जहूर जोति, कोटि पदम उजियार हैं। उल्टे नैन बेसुन्न बिस्तर, जहां तहां दीदार हैं।। 23।।

अष्ट कमल दल सकल रमता, त्रिकुटी कमल मध्य निरखहीं। स्वेत ध्वजा सुन्न गुमट आगे, पचरंग झंडे फरक ही।। 24।।

सुन्न मंडल सत् लोक चलिए, नौ दर मुंद बिसुन्न हैं। बिन चिश्मों एक बिंब देख्या, बिन श्रवण सुनि धुनि हैं।। 25।।

चरण कमल में हंस रहते, बहुरंगी बरियाम हैं। सूक्ष्म मूरति श्याम सूरति, अचल अभंगी राम हैं।। 26।।

नौ सुर बंध निसंक खोलो, दसवें दर मुख मूल हैं। माली न कूप अनूप सजनी, बिन बेली का फूल हैं।। 27।।

स्वास उसास पवन कूं पल्टे, नाग फुनी कूं भूंच है। सूरति निरति का बंाध बेडा, गगन मंडल कू कूंच हैं।। 28।।

सुन ले जोग विजोग हंसा, शब्द महल कूं सिद्ध करो। योह गुरु ज्ञान विज्ञान वाणी, जीवत ही जग में मरो।। 29।।

उजल हिरंबर स्वेत भौंरा, अक्षै वृक्ष सत् बाग है। जीतो काल बिसाल सोहं, तरतीबर बैराग है।। 30।।

मनसा नारी कर पनिहारी, खाखी मन जहां मालिया। कुंभक काया बाग लगाया, फूले हैं फूल विसालिया।। 31।।

कच्छ मच्छ कूरंभ धौलं, शेष सहंस फुन गावहीं। नारद मुनि से रटैं निसदिन, ब्रहा पार न पावहीं।। 32।।

शंभु जोग बिजोग साध्या अचल अडिग समाधि है। अविगत की गति नहीं जानी। लीला अगम अगाध है।। 33।।

सनकादिक और सिद्ध चैरासी, ध्यान धरत है तास का। चैबीसों अवतार जपत हैं, परम हंस प्रकाश का।। 34।।

सहंस अठासी और तैतीसों, सूरज चंद चिराग हैं। धर अंबर धरनी धर रटते, अविगत अचल बिहाग हैं।। 35।।

सुर नर मुनिजन सिद्ध और साधक, पार ब्रहा कूं रटत है। घर-घर मंगलाचार चैरी, ज्ञान जोग जहां बटत हैं।। 36।।

चित्र गुप्त धर्म राये गावैं, आदि माया ओंकार हैं। कोटि सरस्वती लाप करत हैं, ऐसा ब्रहा दरबार हैं।। 37।।

कामधेनु कल्प वृक्ष जाकैं, इन्द्र अनन्त सुर भरत हैं। पार्वती कर जोर लक्ष्मी, सावित्री शोभा करत हैं।। 38।।

गंधर्व ज्ञानी और मुनि ध्यानी, पांचों तत खवास हैं। त्रिर्गुण तीन बहुरंग बाजी, काई जन बिरले दास हैं।। 39।।

ध्ूव प्रहलाद अगाध अग है, जनक विदेही जोर हैं। चले विमान निदान बीत्या, धर्म राय की बंध तोर हैं।। 40।।

गोरख दत जुगादि जोगी, नाम जलंधर लीजिए। भरथरी गोपीचंद सीझे, ऐसी दीक्षा दीजिए।। 41।।

स्ुालतानी बाजीद फरीदा, पीपा परचे पाईया। देवल फेर्या गोप गुसांई, नामा की छान छिवाईया।। 42।।

छान छिवाई गउ जिवाई, गनिका चढी विमान में। सदना बकरे कूं मत मारे, पहुॅचे आन निदान में।। 43।।

अजामेल से अधम उधारे, पतित पावन बिरद तास है। केशो आन भया बनजारा, षट दल कीन्ही हांस हैं।। 44।।

धना भक्त का खेत निपाया, माधो दई सिकलात है। पंडा पांव बुझाया सतगुरु, जगन्नाथ की बात है।। 45।।

भक्त हेत केशो बनजारा, संग रैदास कमाल थे। हे हरे हे हर होती आई, गून छई और पाल थे।। 46।।

गैबी ख्याल विशाल सतगुरु, अचल दिगंबर थीर हैं। भक्त हेत काया धर आए, अविगत सत् कबीर हैं।। 47।।

ननक दादू अगम अगाधू तिरी जहाज खेवट सही। सुख सागर के हंस आये, भक्ति हिरंबर उर धरी।। 48।।

कोटि भानू प्रकाश पूर्ण, रुम-रुम की लार हैं। अचल अभंगी है सतसंगी, अविगत का दीदार हैं।। 49।।

धन सतगुरु उपदेश देवा, चैरासी भर्म मेटही। तेज पुंज तन देह धर कर, इस विध हम कूं भेंट की।। 50।।

शब्द निवास आकाश वाणी, योह सतगुरु का रुप हैं। चंद सूर्य नहीं पवन पानी, ना जहां छाया धूप हैं।। 51।।

रहता रमता राम साहिब, अविगत अलह अलेख हैं। भूले पंथ विटंबवादी, कुल का खाविंद एक हैं।। 52 ।।

रुम-रुम में जाप जप लें, अष्ट कमल दल मेल हैं। सुरति निरति कं कमल पठवों, जहां दीपक बिन तेल हैं।। 53 ।।

हरदम खोज हनोज हाजर, त्रिवेणी के तीर हैं। दास गरीब तबीब सतगुरु, बंदी छोड कबीर है।। 54 ।।

||सत साहिब ||

     

 
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