।। अथ सर्व लक्षणा ग्रन्थ ।।
उत्तम कुल कर्तार दे, द्वादश भूषण संग । रूप द्रव्य दे दया करि, ज्ञान भजन सत्संग ।।१।।
शिल संतोष विवेक दे, क्षमा दया एकतार । भाव भक्ति बैराग दे, नाम निरालम्ब सार ।।२।।
योग युक्ति जगदीश दे, सूक्ष्म ध्यान दयाल । अकलि अकीन अजन्म जति, अष्ट सिद्धि नौ निधि ख्याल ।।३।।
स्वर्ग नरक बांचै नहीं, मोक्ष बंधन से दूर । बड़ी गरीबी जगत में, संत चरण रज धूर ।।४।।
जीवत मुक्ता सो कहौ, आशा तृष्णा खण्ड । मन के जीते जीत है, क्यों भरमैं ब्रह्मण्ड ।।५।।
शाला कर्म शरीर में, सतगुरू दिया लखाय । गरीबदास गलतान पद, नहीं आवैं नहीं जाय ।।६।।
चौरासी की चाल क्या, मो सेती सुनि लेह । चोरी जारी करत हैं, जाके मौंहडे खेह ।।७।।
काम क्रोध मद लोभ लट, छुटी रहै विकराल । क्रोध कसाई उर बसै, कुशब्द छुरा घर घाल ।।८।।
हर्ष शोक हैं श्वान गति, संसा सर्प शरीर । राग द्वेष बड़ रोग हैं, जम के परे जंजीर ।।९।।
आशा तृष्णा नदी में, डूबे तीनौं लोक । मनसा माया बिस्तरी, आत्म आत्म दोष ।।१०।।
एक शत्रु एक मित्र है, भूल पड़ी रे प्राण । जम की नगरी जाहिगा, शब्द हमारा मान ।।११।।
निंद्या बिंद्या छाडि दे, संतों सूं कर प्रीत । भवसागर तिर जात है, जीवत मुक्ति अतीत ।।१२।।
जे तेरे उपजै नहीं, तो शब्द साखि सुनि लेह । साक्षीभूत संगीत है, जासे लावो नेह ।।१३।।
स्वर्ग सात असमान पर, भटकत है मन मुढ़ । खालिक तो खोया नहीं, इसी महल में ढूंढ़ ।।१४।।
कर्म भर्म भारी लगे, संसा सूल बबूल । डाली पांनौं डोलते, परसत नांही मूल ।।१५।।
श्वासा ही में सार पद, पद में श्वासा सार । दम देही का खोज कर, आवागवन निवार ।।१६।।
बिन सतगुरू पावै नहीं, खालिक खोज विचार । चौरासी जग जात है, चीन्हत नांही सार ।।१७।।
मरद गर्द में मिल गये, रावण से रणधीर । कंस केश चाणूर से, हिरणाकुश बलबीर ।।१८।।
तेरी क्या बुनियाद है, जीव जन्म धर लेत । गरीबदास हरी नाम बिन, खाली परसी खेत ।।१९।।
||सत साहिब||